दिल की बातें दिल से
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अदब से चिलमन उठा रही थी।
दिलों पे बिजली गिरा रही थी॥
बना रही थी सभी को बिस्मिल,
वो जब भी नज़रें घुमा रही थी॥
शबाब उसका उरूज पे था,
गज़ब क़यामत वो ढा रही थी॥
गुलों की सुर्ख़ी लबों पे उसके,
गुलों सा ही मुस्करा रही थी॥
सलाम करने की इक अदा थी,
निगाह जो वो झुका रही थी॥
हसीन आँखों के मस्त प्याले,
नज़र से सबको पिला रही थी॥
भला ये “सूरज” न ढलता कैसे,
वो शाम बन के बुला रही थी ॥
डॉ॰ सूर्या बाली “सूरज”
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